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कविता

अपने अंतर में ढालो !

राहुल देव


मेरे अंतर को
अपने अंतर में ढालो
हे इतिवृत्तहीन
अकल्मष !
मेरे अंतस के दोषों में
श्रम प्रसूति स्पर्धा दो
बनूँ मैं पूर्ण इकाई जीवन की
गूँजे तेरा निनाद उर में हर क्षण
विश्वनुराक्त !
तम दूर करो इस मन का
अंतर्पथ कंटक शून्य करो
हरो विषाद दो आह्लाद
मैं बलाक्रांत, भ्रांत, जड़मति
विमुक्ति, नव्यता, ओज मिले
परिणीत करो मेरा तन-मन
मैं नित-नत पद प्रणत
निःस्व
तुम्हारी शरणागत !


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